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शनिवार, 24 मई 2025

मरिचझापी नरसंहार (Marichjhapi Massacre) – 1979: एक ऐतिहासिक अन्याय

मरिचझापी नरसंहार (Marichjhapi Massacre) – 1979: एक ऐतिहासिक अन्याय

Marichjhapi Massacre – 1979: A Historical Injustice


मरीचझापी, जहाँ 1979 में हज़ारों लोग मारे गए थे, अब एक भूतहा द्वीप बन चुका है और कुमिरमारी सबसे नज़दीकी आबादी वाला स्थान है। मोटर चालित नौका से मरीचझापी से कुमिरमारी तक पहुँचने में लगभग 20-25 मिनट लगते हैं। (छवि: मृदुलिका झा)

मरिचझापी नरसंहार पश्चिम बंगाल के सुंदरबन क्षेत्र में 1979 में हुआ था। यह घटना दलितों, विशेष रूप से नामशूद्र शरणार्थियों, के खिलाफ राज्य सरकार द्वारा किए गए अत्याचारों से जुड़ी है। इसे भारतीय इतिहास में बड़े पैमाने पर हुए मानवाधिकार उल्लंघनों में से एक माना जाता है।


मरिचझापी नरसंहार की पृष्ठभूमि

1. शरणार्थी समस्या और नामशूद्र समुदाय

  • 1947 में भारत के विभाजन के बाद, विशेष रूप से पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) से बड़ी संख्या में हिंदू शरणार्थी भारत आए।

  • इनमें से अधिकांश नामशूद्र समुदाय से थे, जो एक पिछड़ा और उत्पीड़ित दलित समूह था।

  • पश्चिम बंगाल की तत्कालीन सरकार ने इन शरणार्थियों को बसाने से इंकार कर दिया और उन्हें दण्डकारण्य (मध्यप्रदेश, ओडिशा और छत्तीसगढ़ का हिस्सा) भेज दिया।

  • परंतु दण्डकारण्य में प्रतिकूल परिस्थितियों और बेरोजगारी के कारण कई शरणार्थी पश्चिम बंगाल वापस लौट आए।


2. मरिचझापी में शरणार्थियों का पुनर्वास

  • 1978 में लगभग 40,000 शरणार्थियों ने सुंदरबन के मरिचझापी द्वीप में बसने का प्रयास किया।

  • उन्होंने यहाँ खेती, मछली पालन, और अन्य व्यवसाय शुरू किए, जिससे द्वीप में एक नई अर्थव्यवस्था विकसित हो रही थी।

  • लेकिन यह द्वीप सुंदरबन टाइगर रिज़र्व के तहत संरक्षित क्षेत्र में आता था, जिससे सरकार ने इसे अवैध बसावट घोषित कर दिया।


मरिचझापी नरसंहार – 1979

1. सरकार की प्रतिक्रिया और हिंसा की शुरुआत

  • पश्चिम बंगाल में उस समय वाम मोर्चा सरकार (CPI(M) नेतृत्व वाली) थी, जिसकी अगुआई मुख्यमंत्री ज्योति बसु कर रहे थे।

  • सरकार ने शरणार्थियों को हटाने के लिए जनवरी 1979 में द्वीप की नाकाबंदी कर दी।

  • पुलिस ने भोजन, दवा और पानी की आपूर्ति रोक दी, जिससे शरणार्थियों में भुखमरी फैल गई।

  • जब शरणार्थियों ने विरोध किया, तो 31 जनवरी 1979 को पुलिस और राज्य समर्थित बलों ने गोलीबारी शुरू कर दी।

2. नरसंहार के परिणाम

  • सटीक आंकड़ों पर विवाद है, लेकिन विभिन्न स्रोतों के अनुसार 1000 से अधिक लोगों की हत्या कर दी गई।

  • हजारों लोग सुंदरबन के जंगलों में भाग गए, जहां कई भूख और बीमारियों से मारे गए।

  • महिलाओं के साथ दुष्कर्म और हिंसा की घटनाएँ भी दर्ज की गईं।

  • सरकारी दस्तावेजों में इस घटना को "पुलिस कार्रवाई" के रूप में दर्ज किया गया, लेकिन प्रत्यक्षदर्शियों और शोधकर्ताओं ने इसे नरसंहार करार दिया है।


शोध एवं ऐतिहासिक विश्लेषण

1. महत्वपूर्ण पुस्तकें और शोध पत्र

(A) 'The Hungry Tide' – अमिताव घोष

  • यह साहित्यिक कृति मरिचझापी की घटनाओं पर आधारित है।

  • इसमें शरणार्थियों के संघर्ष, पर्यावरणीय मुद्दों और सामाजिक अन्याय को दर्शाया गया है।

(B) 'Marichjhapi Massacre: A Tale of State Violence' – अकादमिक शोध

  • इस शोध में बताया गया कि यह नरसंहार राज्य प्रायोजित हिंसा का उदाहरण था।

  • इसमें शरणार्थियों की सामाजिक और राजनीतिक पृष्ठभूमि का अध्ययन किया गया है।

(C) अनुराधा रॉय और अन्य शोधकर्ताओं का विश्लेषण

  • विभिन्न लेखों में बताया गया है कि कैसे राजनीतिक स्वार्थों के चलते दलित शरणार्थियों को हिंसा का शिकार बनाया गया।

  • यह भी उल्लेख किया गया है कि सरकार के इस रवैये के पीछे जातीय पूर्वाग्रह भी एक कारण था।


मरिचझापी नरसंहार का प्रभाव और निष्कर्ष

1. दलित राजनीति पर प्रभाव

  • इस घटना ने पश्चिम बंगाल में दलित राजनीति को झकझोर दिया।

  • नामशूद्र समुदाय में वाम मोर्चा सरकार के प्रति असंतोष बढ़ा।

2. सरकार की जिम्मेदारी

  • राज्य सरकार ने इस घटना पर कोई आधिकारिक माफी नहीं मांगी।

  • आज भी इस नरसंहार को लेकर सरकारी रिकॉर्ड सीमित और अपूर्ण हैं।

3. न्याय और स्मरण

  • कई सामाजिक कार्यकर्ताओं और शोधकर्ताओं ने मांग की है कि इसे "राज्य प्रायोजित नरसंहार" घोषित किया जाए।

  • आज भी मरिचझापी से जुड़े साक्ष्य और स्मारकों की कमी है, जिससे पीड़ितों को न्याय नहीं मिल सका।


निष्कर्ष

मरिचझापी नरसंहार एक ऐसा छुपा हुआ इतिहास है, जिसे सरकारों ने दबाने की कोशिश की। यह घटना भारतीय राजनीति में जाति, शरणार्थी संकट और राज्य की बर्बरता को दर्शाती है। इसके बावजूद, आज भी इस घटना पर व्यापक चर्चा नहीं होती, और न्याय की मांग जारी है।


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